Tuesday, December 14, 2010
बंद नब्ज़ ...
उसकी पायंत सोता हूँ
तब से हर रात
धीमी ही सही
पर आवाज़ दे शायद
और कहीं मैं सुन ना पाऊ
पर अब ना कोई आवाज़
ना घरघराहट
एकदम जड़
हमेशा तो ऐसा ना था
रातों रात सोने ना देता
खिलखिलता
चीखता
शोर मचाता
कितनी रातें
इसके कंधे पे कटी
निशाचरी
कितनी दफ़ा इसने
रुलाया
आंसू पोंछे
हंसाया
तन्हाई बांटी
कितनी सुबहें
इसकी आवाज़ से नहा
दुनिया सुनी
एक खास दुनिया
जिसका दरवाज़ा था वो
शायद दरवाज़े
का ताला बदल गया
मेरी चाबी बेअसर है
बात करता हूँ
तो जवाब नहीं आता
तुम भी कुछ कहती तो होगी
पर अल्फाज़ हमारे बीच
कहीं अटक जाते होंगे
कोई मर्ज़ तो ज़रूर है
हकीम बेअसर
नब्ज़ बंद
डैड हो गया शायद
कल दफना दूंगा
अपना ये फ़ोन
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
About Me
- Tushar Gaur
- Bulandshahr, UP, India
- i work on philosophies, i sketch manually but work on computers, i explain a lot and people listen me like teachers, i m technocrat and guide engineers,i own a shop in market and call it office ,I can create walls n fill the gaps ... i m AN ARCHITECT
No comments:
Post a Comment