खस्ताहाल
सुनसान राह का
ज़र्रा ज़र्रा उखड़ा
बस वहीँ पड़ा है
एक दम सुन्न
मायूस बजरी
ठोकरों से
तड़पती-हिलती तो है
पर शख्सियत
मौत के मानिंद खामोश
जुल्मो की दास्ताँ है
उसकी हर दरार
उस पे
मुसाफिर भी
कुछ ऐसा ही
हर कदम पे
दोनों की
आह निकलती है
आहों मैं गुफ्तगू
होती गयी और
यूँही सफ़र कट गया
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