Friday, March 11, 2011

आहों मैं गुफ्तगू


खस्ताहाल
सुनसान राह का 
ज़र्रा ज़र्रा उखड़ा 
बस वहीँ पड़ा है 
एक दम सुन्न  
मायूस बजरी 
ठोकरों से 
तड़पती-हिलती तो है 
पर शख्सियत 
मौत के मानिंद खामोश 
जुल्मो की दास्ताँ है 
उसकी हर दरार  
उस पे 
मुसाफिर भी
कुछ ऐसा ही 
हर कदम पे
दोनों की 
आह निकलती है 

आहों मैं गुफ्तगू 
होती गयी और 
यूँही सफ़र कट गया  

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Bulandshahr, UP, India
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